अगरिया जनजाति भारत की एक पारंपरिक आदिवासी जनजाति है, जो मुख्यतः मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, और झारखंड में निवास करती है। यह जनजाति खासकर पारंपरिक लोहा गलाने और लोहे के औजार बनाने के लिए जानी जाती है। इनकी पहचान भारत की सबसे प्राचीन धातुकार जातियों में होती है।
अगरिया जनजाति की प्रमुख विशेषताएँ:
1. पारंपरिक पेशा – लोहा गलाना:
अगरिया लोग पारंपरिक रूप से लोहे की खदानों से कच्चा लोहा (आयरन ओर) लाकर उसे भट्ठियों में गलाकर औजार, हथियार और उपकरण बनाते थे।
ये अपने बनाए औजार गाँव के किसानों, लकड़हारों और दस्तकारों को बेचते थे।
2. पारंपरिक तकनीक:
ये लोग लकड़ी की धौंकनी (फुकनी), मिट्टी की भट्ठी और हाथ से बनाए औजारों का उपयोग करते हैं।
इनकी तकनीक बेहद सहज और पर्यावरण-संगत होती है।
3. भूगोलिक वितरण:
मध्य प्रदेश के शहडोल, डिंडोरी, अनूपपुर, सीधी, सिंगरौली, उमरिया, मंडला, बालाघाट आदि ज़िलों में इनकी बड़ी आबादी है।
छत्तीसगढ़ में कोरिया मनेन्द्रगढ़ कबीरधाम आदि में ये बसे हैं।
4. समाज और संस्कृति:
ये प्रकृति-पूजक होते हैं और धरती माता, आग, लोहा आदि की पूजा करते हैं। अगरिया जनजाति के इष्ट देव लोहासुर है ll
इनकी अपनी बोली और लोकगीत होते हैं, जिनमें श्रम, प्रकृति और लोहा बनाने की परंपरा झलकती है।
5. चुनौतियाँ:
आधुनिक औद्योगिक तकनीकों और खदानों के कारण इनका पारंपरिक पेशा लगभग समाप्त हो गया है।आजीविका के लिए इन्हें मज़दूरी या कृषि पर निर्भर होना पड़ रहा है।
मान्यता के अनुसार अगरिया जनजाति अत्यंत पिछड़ी हुई जनजाति है शिक्षा, व्यवसाय नौकरी, सामाजिक रहन सहन मे ll सरकार को इस जनजाति को pvtg मे शामिल करना अत्यंत आवश्यक है ll
ऐतिहासिक महत्व:
अगरिया जनजाति को भारत में लोहे की धातुकर्म परंपरा के संरक्षक के रूप में देखा जाता है।
इनकी पारंपरिक तकनीकें और ज्ञान, भारतीय वैज्ञानिक धरोहर का हिस्सा हैं।
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